आज कल एक फ़िल्म कश्मीर फाइल्स बहुत सुर्खियां बटोर रही है और पूरे देश को इस फ़िल्म ने झिंझोर कर रख दिया है। कंटेंट के आधार पर इसे डॉक्यूमेंट्री ही कहा जाना चाहिए क्योंकि यह एक तरह से 89-90 में कश्मीरी पंडितों के साथ एक वर्ग विशेष के कुछ लोगो द्वारा किये गए अत्याचार और हिंसा का सजीव वर्णन है और यह सच के करीब है।
मगर एक तथ्य पर गौर करने की जरूरत है, आखिर क्यों हिंदुस्तान के एक प्रदेश में इस अत्याचार को घटित होने से रोका नही गया और यह घटना एक दिन में तो हुआ नही?
राज्य और केंद्र सरकार के एजेंसीज ने सरकार को सतर्क क्यों नही किया और हिंदुस्तान में हिन्दू कश्मीरी ब्राह्मणों को अपने ही देश मे यह जुल्म और विस्थापन का दंश झेलना पड़ा?
क्या 30-32 वर्षों में किसी भी सरकार ने इन विस्थापित पंडितो का वापस लाने का कार्य नही किया, इच्छा शक्ति की कमी रही है यह मेरा मानना है चाहे सरकारें कांग्रेस की रही हों या bjp की।
क्यों एक फिल्मकार के आगे आकर फ़िल्म के माध्यम से देश के सामने सच्चाई को सामने लाना पड़ा? फिल्मे मनोरंजन का माध्यम होना चाहिए न कि इतिहास को चित्रण करने का।
कल कोई और फिल्मकार तमाम विवादित और अप्रिय घटनाओं पर फ़िल्म बनाना शुरू कर दे और फ़िल्म को एक कमर्शियल या पोलिटिकल एंगल से टेंपरिंग करके जनता के सामने प्रस्तुत करना शुरु कर दे तो माहौल जहरीला होते देर नही लगेगी क्योंकि दोनों तरफ सियासतदान मौके का फायदा उठाने के लिए तैयार बैठे रहतें हैं। फिल्मकार भी मुनाफा कमाने के लिए वास्तविक तथ्यों को तोड़-मरोड़ करेंगे ही।
प्रश्न यह भी है कि फिल्मकार के नाते हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए। मनोरंजन या गंभीर संदेश जो जन भावनओं को उद्वेलित करे। इसे तय करना होगा। ऐसा न हो कि आने वाले समय मे ऐय्शी फ़िल्म बनने का दौर आ जाय जहां फिल्मकार कमर्शियल हितों को ध्यान में रखते हुए विवादित तथ्यों को अपने हिसाब से मिर्च मशाला लगा कर देश को देखने पर मजबूर कर दे और ये फिल्में ब्लॉकबस्टर बन कर 100-500 करोड़ के क्लब में शामिल हो जाये। एक बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री जिसमे बहुत ही जबरदस्त निर्देशन और कलाकारों का जीवंत अभिनय है हमे देखना चाहिए लेकिन अपने पैसो से और अपनी रुचि से।